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Uploaded On 2025-05-02 14:27:51

जातिगत जनगणना से सामाजिक-आर्थिक नीतियों को मिलेगी गति

सरकार ने जाति जनगणना कराने का एक बड़ा और साहसिक कदम उठाया

हाल ही में केंद्र सरकार ने जाति जनगणना कराने की बात कही है। पाठकों को बताता चलूं कि विपक्षी दल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल समेत कई विपक्षी दल लगातार देश में जाति जनगणना की लगातार मांग करते रहे हैं और अब सरकार ने जाति जनगणना कराने का एक बड़ा और साहसिक कदम उठाया है। इस संबंध में केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने राजनीतिक मामलों पर कैबिनेट कमेटी की बैठक में लिए गए सरकार के इस फ़ैसले की जानकारी देते हुए यह बात कही है कि जातियों की गिनती जनगणना के साथ की जाएगी। गौरतलब है कि 'जनगणना' केंद्र  का विषय(संविधान के अनुच्छेद 246 के अनुसार) है और अब सरकार ने जाति जनगणना का जो फैसला किया है,वह काबिले-तारीफ इसलिए है क्यों कि इससे यह पता चल सकेगा कि देश के विभिन्न संसाधनों में दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक और ग़रीब सामान्य वर्ग के लोगों की कितनी और किस कदर हिस्सेदारी है। संक्षेप में कहें तो जाति जनगणना समाज के अंतिम आदमी के कल्याण का जरिया बन सकेगी। पाठकों को बताता चलूं कि विपक्ष ने सरकार के इस फैसले का पूरा समर्थन व स्वागत किया है, लेकिन विपक्ष ने सरकार को इसकी टाइमलाइन बताने की भी कि इस जातिगत जनगणना का काम कब तक पूरा हो पाएगा, की बात भी साथ ही साथ कही है। यहां यह बात गौरतलब है कि भारत में इससे पहले वर्ष 1931 में जाति जनगणना हुई थी, और उसके बाद देश में होने वाली जनगणनाओं में कभी जातियों की गिनती नहीं की गई थी। गौरतलब है कि जनगणना में दलितों और आदिवासियों की संख्या तो गिनी जाती है, लेकिन पिछड़ी और अति पिछड़ी (ओबीसी और ईबीसी) जातियों के कितने लोग देश में हैं, इसकी गिनती नहीं होती है। पाठकों को बताता चलूं कि अक्सर यह माना जाता है कि देश की कुल आबादी में लगभग 52 फ़ीसदी लोग पिछड़ी और अति पिछड़ी जाति के हैं तथा ओबीसी समुदाय के नेताओं का यह मानना है कि इस हिसाब से उनकी राजनीतिक हिस्सेदारी काफ़ी कम है। इस संबंध में विश्लेषकों का यह भी कहना है कि राजनीतिक दल इन समुदायों का समर्थन हासिल करने के लिए जाति जनगणना का समर्थन कर रहे हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि भारत आज भी विविधतापूर्ण देश है और यहां अनेक जातियों और धर्मों के लोग निवास करते हैं। हमारे देश में तो युगों युगों से जाति सामाजिक संरचना का एक अहम व महत्वपूर्ण हिस्सा रही है। कहना ग़लत नहीं होगा कि अब केंद्र द्वारा घोषित जातीय जनगणना विभिन्न जातियों के(ओबीसी , दलित, पिछड़े आदिवासी और अल्पसंख्यकों) के वास्तविक आंकड़ों और प्रतिनिधित्व की स्थिति को दर्शा सकेगी। सच तो यह है कि जाति जनगणना आने वाले समय में हमारे देश में आरक्षण व्यवस्था और न्यायिक समीक्षा के संदर्भ में नीति-निर्धारण के लिए एक ठोस व मजबूत आधार बन सकती है। यहां यह बात दीगर है कि स्वतंत्रता के बाद से जातिगत जनगणना को 1931 के बाद से नियमित रूप से नहीं किया गया है, केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आंकड़े ही एकत्र किए जाते रहे हैं। हालांकि, 1951 में स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना के समय तत्कालीन सरकार ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों को छोड़कर अन्य जातियों की गणना नहीं कराने का निर्णय लिया था। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि यूपीए सरकार के दौरान 2011 की जनगणना में जाति जनगणना हुई थी, लेकिन इसकी रिपोर्ट आम जनता के सामने नहीं आ सकी थी।कहना चाहूंगा कि जातिगत आंकड़ों का अभाव विभिन्न नीति-निर्माण में एक बड़ी बाधा रहा है, साथ ही इसने आरक्षण, विभिन्न सामाजिक कल्याण योजनाओं और संसाधनों के वितरण में कई दफा असमानता को और गहरा ही किया है। यहां यह कहना भी ग़लत नहीं होगा कि केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में घोषित जातीय जनगणना आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की 50% वाली व्यवस्था वाली बहस को एक नया मोड़ दे सकती है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि वर्ष 1992 के इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की पीठ ने यह बात कही थी कि आरक्षण की सीमा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिए, अब केंद्र सरकार द्वारा जाति जनगणना की बात से इस बहस को कहीं न कहीं नया मोड़ मिल सकेगा। बहरहाल , यहां यह भी उल्लेखनीय है कि आरक्षण के मामले में हालांकि, माननीय कोर्ट ने ओबीसी के लिए 27% आरक्षण(मंडल आयोग) को मंजूरी दी, लेकिन साथ ही क्रीमी लेयर को इससे बाहर करने और असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर कुल आरक्षण सीमा पर रोक भी लगाई थी।इसके बाद भी कई बार केंद्र और राज्यों द्वारा इस सीमा से ऊपर आरक्षण देने की कोशिशें की गईं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हर बार आंकड़ों और तथ्यों की मांग करते हुए इन्हें खारिज कर दिया। मसलन, सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2014 में जाट समुदाय को ओबीसी सूची में शामिल करने की यूपीए सरकार की कोशिश को खारिज कर दिया। बहरहाल,जानकारों का यह मानना है कि अगर जातिगत गणना हुई तो ओबीसी को 27 फीसदी कोटा बढ़ाने की मांग उठेगी। पाठकों को बताता चलूं कि आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को वर्ष 2019 में केंद्र के 10 फीसदी आरक्षण देने के बाद से ही इसकी लगातार मांग की जा रही है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि वर्ष 2018 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा मराठा आरक्षण बढ़ाने के कानून को भी सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था, क्योंकि इससे 50% आरक्षण की सीमा पार हो रही थी। बहरहाल, पिछले कुछ सालों से देश में जातिगत जनगणना विपक्षी दलों की एक प्रमुख और अहम् मांग रही है। पाठकों को बताता चलूं कि बिहार में महागठबंधन की सरकार के दौरान वर्ष 2023 में जातिगत सर्वे के आंकड़े जारी किए गए थे। उस वक्त नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू और आरजेडी की राज्य में सरकार थी। उल्लेखनीय है कि बिहार के 2023 के सर्वे के अनुसार, ओबीसी और अत्यंत पिछड़े वर्ग (ईबीसी) राज्य की कुल आबादी का 63% से अधिक हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि बाद में तेलंगाना और कर्नाटक जैसे कुछ गैर बीजेपी शासित राज्यों में जाति आधारित सर्वे भी कराए गए हैं। वास्तव में बिहार के 2023 के जातिगत सर्वेक्षण के मुद्दे के बाद विपक्ष केंद्र पर इसे(जातीय जनगणना) राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने का दबाव बना रहा था।हाल फिलहाल , मोदी सरकार ने इस मांग को स्वीकार कर लिया है और विपक्षी दलों को शान्त कर दिया है। बिहार एक जातिप्रधान राज्य है, जहां इसी वर्ष विधानसभा भी चुनाव होने हैं, ऐसे में केंद्र सरकार का यह निर्णय एनडीए के लिए रणनीतिक फायदे की स्थिति भी बना सकता है।हालांकि, यह बात अलग है कि जातिगत जनगणना का महत्व केवल राजनीतिक लाभ तक ही सीमित नहीं है, सरकार के इस निर्णय से कहीं न कहीं सामाजिक न्याय की भावना को बल मिल सकेगा, वहीं दूसरी ओर इससे समावेशी विकास भी सुनिश्चित हो सकेगा।जातीय जनगणना से यह भी पता चल सकेगा कि विभिन्न जातीय समूहों की सामाजिक आर्थिक स्थिति क्या और कैसी है। समाज के जातिगत ढांचे के बारे में जानकारी प्राप्त होने से इन जातीय समूहों के उत्थान और विकास के लिए रणनीतियां तैयार की जा सकती हैं, लेकिन जातीय जनगणना कराना कोई आसान काम नहीं होगा,यह एक हरक्यूलियन टास्क होगा, क्यों कि भारत जातियों की विविधता वाला देश है और यहां हजारों जातियां-उपजातियां निवास करतीं हैं। यहां पर यदि हम आंकड़ों की बात करें तो 1901 की जनगणना से पता चला कि भारत में 1646 जातियां हैं। तथा 1931 की जनगणना होने तक यह संख्या 4147 जातियों तक पहुंच गई। उसके मुकाबले अब अकेले ओबीसी में हजारों जातियां हैं। 1980 में मंडल आयोग ने बताया था कि उसने 3428 जातियों की पहचान ओबीसी के रूप में की थी। वर्ष 2011 के एसईसीसी में राष्ट्रीय स्तर पर 46 लाख जातियों, उपजातियों का आंकड़ा बहुत बड़ा पाया गया था। इतना ही नहीं,राष्ट्रीय और राज्यों के स्तर पर जातियों के मामले में बहुत घालमेल है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार ओबीसी की सेंट्रल लिस्ट में जहां करीब ढाई हजार जातियां हैं, वहीं राज्यों के स्तर पर ओबीसी में 3 हजार से ज्यादा जातियां हैं। कई ऐसी जातियां हैं, जो स्टेट ओबीसी लिस्ट में हैं, लेकिन सेंट्रल ओबीसी लिस्ट में नहीं हैं। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि जातीय जनगणना एक बड़ा व टेढ़ा काम है। जातीय आंकड़े एकत्र करने के लिए एक सुव्यवस्थित और पारदर्शी तंत्र की जरूरत होगी, और जातिगत जनगणना को लागू करना भी इतना आसान नहीं होगा। जातीय जनगणना के बाद सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इन आंकड़ों का(जातीय जनगणना के आंकड़ों का) सदुपयोग हो। अंत में यही कहूंगा कि केंद्र सरकार का जातिगत जनगणना कराने का फैसला एक महत्वपूर्ण व बड़ा कदम है। निश्चित ही इससे देश में विभिन्न  सामाजिक-आर्थिक नीतियों को अधिक प्रभावी बनाने में मदद मिल सकेगी।