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Uploaded On 2025-01-18 03:02:36

अपनी क्षमता की आन्तरिक पहचान करें

मानव जीवन समस्याओं से भरा हुआ है

मानव जीवन समस्याओं से भरा हुआ है और कभी-कभी समस्याएं इतना विकराल रूप धारण कर लेती है कि मन निराशा से भर उठता है। व्यक्ति विषाद में आकंठ डूब जाता है और तब उसे कोई मार्ग दिखाई नहीं देता। भारतीय परा साहित्य में ऐसे विषादयुक्त क्षणों में प्रेरणा द्वारा नवशक्ति, आशा, इच्छाशक्ति के उदय का जो वर्णन है, वह आधुनिक युग में वैज्ञानिक आधार पर भी स्वीकार किया जा रहा है। ऐसे क्षणों का एक उदाहरण है समुद्र लंघन। माता सीता की खोज में लंका तक जाना एक विकट समस्या थी। कोई विचार नहीं कर सकता था कि समुद्र के उस पार छलांग लगाकर जाया जा सकता है। ऐसे क्षणों में वानरों का विषादयुक्त होना स्वाभाविक था। रामायण के किशकिन्धा काण्ड के चतुर्थ सर्ग में इस स्थिति का वर्णन है। इस अवसर पर अहंगद का कथन ध्यान देने योग्य है। वे कहते हैं ‘वीरो, तुम्हें अपने मन को विषाद में नहीं डालना चाहिए क्योंकि विषाद में बहुत बड़ा दोष है। जैसे क्रोध में भरा हुआ सांप अपने पास आये हुए बालक को काट खाता है, उसी प्रकार विषाद पुरूष का नाश कर डालता है। जो मनुष्य विषादग्रस्त हो जाता है, उसके तेज का नाश हो जाता है। उस तेजहीन पुरूष का पुरूषार्थ सिद्ध नहीं होता।’ वस्तुतः विकराल समस्याओं के बादल जब मानस पटल पर उमड़ने घुमड़ने लगते हैं तो हमारी आन्तरिक शक्ति जवाब दे बैठती है और हम शक्तिशाली होते हुए भी अपने बल को पहचान नहीं पाते। अपने बल का आभास तभी होता है जब कोई अन्य व्यक्ति, घटना या परिस्थिति हमें उसका अनुभव कराती है। समुद्र लांघने की शक्ति की इस विषम परिस्थिति में यही स्थिति वानर शिरोमणि महावीर हनुमान की रहती है। जाम्बवान जब हनुमान जी को उनकी उत्पत्ति कथा सुनाकर समुद्र के लिए उत्साहित करते हैं, तब हनुमानजी का उत्साह और बल प्रकट होता है। उसके पूर्व वे एकान्त में जाकर मौन से बैठे हुए थे। उसे किसी बात की चिन्ता नहीं थी और वे दूर तक छलांग मारने वालों में सबसे श्रेष्ठ थे। अन्तर शक्ति का जागरण: वृद्ध जाम्ववान जानते थे कि हनुमान बल, बुद्धि, तेज और धैर्य में अन्य प्राणियों से बढ़ कर हैं इसलिए वे हनुमानजी को पवनसुत होने के तथ्य का वर्णन करते हुए उन्हें पक्षियों में श्रेष्ठ, विनतानन्दन गरूण के समान विख्यात शक्तिशाली एवं तीव्रगामी कहते हैं। हनुमानजी को धैर्यवान, महातेजस्वी, महाबली, महापराक्रमी बताते हुए उन वरों का स्मरण कराया जिसके अनुसार वे अस्त्र, शस्त्र से नहीं मारे जा सकेंगे और इच्छा मृत्यु के अधीन होंगे। महात्मा जाम्बवान की प्रेरणा पाकर कपिवर हनुमान को अपने महान वेग पर विश्वास हो आया। उनके शरीर को उन्होंने और भी बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया, हर्ष और उमंग से वे कार्य सिद्धि के लिए प्रयत्नशील हुए लेकिन उत्साह, उमंग, हर्ष ही हनुमानजी ने पर्याप्त नहीं माना। वेगपूर्वक छलांग मारने की योजना व चित को एकाग्र करने की आवश्यकता का भी अनुभव किया। वस्तुतः अपनी शक्ति और उत्साह के साथ योजना व चित की एकाग्रता वह आवश्यक गुण है जो अन्तरशक्ति के जागरण के बाद अत्यन्त आवश्यक है। आज आधुनिक युग में वैज्ञानिक शोध के बाद प्रबन्धशास्त्र भी यही तथ्य प्रस्तुत कर रहा है। नल को शक्ति का आन्तरिक जागरण: महावीर हनुमान की आन्तरिक शक्ति का जागरण और प्रेरणा से वे माता सीता की खोज में समुद्र पार कर गए किन्तु रामजी की सेना कैसे समुद्र पार पहुंचे, यह एक समस्या पुनः रामायण में उभरती है। इन क्षणों में पुनः व्याकुलता, निराशा, शोक व्याप्त होता है। इन क्षणों में प्रेरणा के स्वर राजा सुग्रीव के द्वारा कहे गए हैं। वे कहते हैं जो पुरूष उत्साहशून्य, दीन और मन ही मन शोक से व्याकुल रहता है, उसके सारे कार्य बिगड़ जाते हैं और वह बड़ी विपत्ति में पड़ जाता है। बुद्धि की इस व्याकुलता को त्याग दें क्योंकि यह समस्त कार्यों को बिगाड़ देने वाली है और शोक इस जगत में पुरूष के शौर्य को नष्ट कर देता है। इस महान व्याकुलता के मध्य भगवान श्रीराम द्वारा समुद्र पर तीन दिन ‘धरना’ दिए जाने के बाद उसे बाण से मारकर विक्षुब्ध किए जाने की घटना घटित होती है तब सागर स्वयं मूर्तिमान होकर प्रकट हुआ। सागर ने कहा- पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और तेज सर्वथा अपने सनातन मार्ग को कभी नहीं छोड़ते। सदा उसी के आश्रित रहते हैं। मैं भी अगाध और अथाह हूं। कोई मेरे पार नहीं जा सकता। यदि मेरी थाह मिल जाये तो विकार होगा। इसके बाद सागर ने कहा- आपकी सेना में जो नल नामक वानर है, साक्षात विश्वकर्मा का पुत्र है। इसे इसके पिता ने यह वर दिया है कि तुम मेरे ही समान शिल्प कला में निपुण होओगे। यह मेरे ऊपर पुल का निर्माण करें। मैं उस पुल को धारण करूंगा। जब अभियन्ता नल ने यह सुना तब कहा ‘मन्दराचल पर विश्वकर्माजी ने मेरी माता को यह वर दिया था कि देवी। तुम्हारे गर्भ से मेरे समान पुत्र होगा। इस प्रकार मैं विश्वकर्मा का औरस पुत्र हूं और शिल्पकर्म में उन्हीं के समान हूं। इस समुद्र ने आज मुझे इन सब बातों का स्मरण दिला दिया है। महासागर ने जो कुछ कहा है, ठीक है।’नल भी अपनी शक्ति को भूले हुए था। सागर द्वारा बताए जाने पर वह इन गुणों का स्मरण कर सका। मानव मात्र में अनन्त क्षमता है और इसलिए संभावना के द्वार सदा खुलने को तत्पर हैं। आवश्यकता है आंतरिक जागरण के लिए जाम्बवान जैसे महात्मा और वृद्ध की तथा अथाह गहरे गंभीर महासागर की जो प्रेरक तत्व की तरह उभरे और योजना बनाने और एकाग्रचित से समाधान खोलने में लगा दे। तब समस्याओं के महासागर हाथ जोड़े पुल बांधने और सफलतापूर्वक आगे बढ़ जाने के लिए तत्पर मिलेंगे। प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता अनन्त है। हम उसे जान नहीं पाते और इसलिए उपयोग नहीं कर पाते। हमारी निराशा, व्याकुलता, चिंता सब व्यर्थ हो जाये यदि हम कर्म के द्वारा निरंतर उस क्षमता के जागरण का प्रयत्न करें। अपने आपको पहचानने के लिए जब दार्शनिक सुकरात ने संदेश दिया, तब उनका भी यही अर्थ रहा है।